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‘आरक्षण’ के नाम पर देश के सारे नेता_ग़द्दार!..?
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पहली बात, किसी भी प्रकार का आरक्षण नहीं होना चाहिए और यदि होता भी है तो उसका आधार ‘आर्थिक स्थिति’ हो, ताकि सभी को समान रूप से उसका यथोचित लाभ प्राप्त हो सके। दूसरी बात, समाज को जिन घृणित स्वार्थियों ने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन-जाति, पिछड़ा वर्ग, जनजातीय, वनीय, अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक आदिक वर्गों में बाँटा है, इन सबको समाप्त कर देना चाहिए; क्योंकि इन सारे कृत्यों से समाज को कई ख़ानों में विभाजित कर, इतना दुर्बल बना दिया जाता है, ताकि सामाजिक अखण्डता, अक्षुण्णता तथा एकता पनप न सके। अँगरेज़ों की कूटनीतिक चाल ‘बाँटो और शासन करो’ के अन्तर्गत ये सारी कुव्यवस्था की गयी है। अफ़सोस! देश का नागरिक इसे समझने का प्रयास नहीं कर पा रहा है; उसके विवेक को सम्मोहन-पाश में निबद्ध कर लिया गया है; इसीलिए ‘व्यक्तिपूजा’ करायी जा रही है।
आरक्षण और समाज-विभाजन के नाम पर हमारे देश के सारे ग़द्दार नेता हमें आपस में लड़वा रहे हैं और हमारे सारे अधिकारों का दोहन करते हुए, सपरिवार ऐश कर रहे हैं। उसके बाद भी ऐसे राष्ट्र और समाज द्रोहियों का हमारा समाज ‘महिमा-मण्डन’ कर रहा है। खेद है, देश की जनता की आँखें अभी खुल नहीं पा रही हैं; और जब खुलेंगी तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
ऐसा घृणित कृत्य आज़ादी के बाद से अब तक लगातार किया जा रहा है।
‘सत्ता की भूख’ अफ़ीम से भी अधिक मादक होती है। एक बार स्वाद क्या मिला, वज्र बेहया ‘राजनीति’ ‘रखैल’ बन जाती है; एक नहीं, न जाने कितनों की। राजनीति योग्यता नहीं देखती; जो भी सत्ता से सम्बद्ध हो जाता है, राजनीति उसके साथ लिपट जाती है और कुकर्मों से मण्डित करके ही छोड़ती है। कुछ ही चतुर-सुजान होते हैं, जो उसका उपभोग कर अलग हो जाते हैं; परन्तु अधिकतर ऐसे होते हैं, जो राजनीति के इशारे पर किसी भी सीमा तक गिरने के लिए प्रस्तुत रहते हैं। वर्तमान दौर में उसी प्रकार की राजनीति दिख रही है।
पहले की राजनीति में ‘अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक’ का खुला खेल होता था और अब ‘दलित बनाम शेष भारत’ का अलोकतन्त्रीय रस्साकशी की जा रही है। अफ़सोस! सभी राजनीतिक दल के महन्त ‘दलित-आकर्षण की डोर से बँधे चले आ रहे हैं और प्रत्येक स्तर पर ‘सरकारी दलितों’ के लिए ‘आरक्षण’ की व्यवस्था कर, शेष भारतीय नागरिकों के हितों पर कठोर आघात करते हुए, “रँगे हाथ” पकड़े जा रहे हैं; परन्तु बेदाग़ बाइज़्ज़्त बरी हो जाते हैं। यही कारण है कि आज देश का एक-एक राजनेता ‘मनबढ़’ हो चुका है।
अब समय आ चुका है, एक ऐसे सामाजिक संघटन और राजनैतिक दल गठित करने का, जो आरक्षण की राजनीति कर रहे सभी राजनीतिक दलों को दुर्धर्ष चुनौती दे सकें।
आरक्षण के पक्षधर उत्तर दो :—
देश के दलित राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति, राज्यपालों, मुख्यमन्त्रियों, मन्त्रियों, सांसदों, विधायकों, आई० ए० एस०, आई० पी० एस०, आई० एफ० एस०, पी० सी० एस०, इसी तरह के अनेक पदीय अधिकारी, धन्ना सेठों, सरकारी डॉक्टरों, ‘ए’ ग्रेड, ‘बी’ ग्रेड के अधिकारियों आदिक के परिवार को आरक्षण मिलना चाहिए? ऐसे सभी लोग स्वत: ‘आरक्षण का लाभ’ छोड़ने की घोषणा करने से पीछे क्यों हट रहे हैं?
