गुरु का ध्यान किया जाय या भगवान् का?
चाहे गुरु का ध्यान करो, चाहे भगवान् का, दोनों का फल एक ही है। यह नहीं कि गुरु का ध्यान करने से गुरु अधिक शक्ति देगा और भगवान् का ध्यान करने से भगवान् कम देगा। परन्तु गुरु में एक आसानी यह है कि उसकी सब बातें प्रत्यक्ष होती हैं जबकि भगवान् की लीलाओं, क्रियाओं का ध्यान कल्पना से बनाना पड़ता है। अगर गुरु ने कह दिया- तू मेरा है अथवा कोई प्रसादी वस्तु देता है तो उसका लाभ अवश्य मिलेगा चाहे श्रद्धा से तुम लो अथवा बिना श्रद्धा के भी लो, वह तुम्हारी साधना में सहायक होगी। इसके अतिरिक्त गुरु जो अनेक प्रकार की लीलायें करता है तो उसका प्रत्यक्ष ध्यान रहेगा, अतः साधक पुनः पुनः चिन्तन करके विभोर हो सकता है। भगवान् तो प्रत्यक्ष हैं नहीं अतः उनकी लीलाओं का ध्यान तो मन से ही करना होगा। प्रत्यक्ष में मन आसानी से लग जाता है लेकिन अपनी रुचि के अनुसार ध्यान साधक किसी का भी कर सकता है। केवल भगवान् के ध्यान से काम नहीं बनेगा, केवल गुरु के ध्यान से काम बन जायेगा। गुरु के साथ-साथ भगवान् का ध्यान करना यह ज्यादा ठीक है, इससे साधना में गड़बड़ी नहीं होगी।