पंचतात्विक नवधा ऊर्जा प्रसविनी नवरात्र से जुड़े आध्यात्मिक और वैज्ञानिक रहस्य
'नवरात्र' त्यौहार को चैत्र और आश्विन माह में ही मनाते है। इस दोनों माह में भौतिक जगत में हलचल मचने लगती है। धरती, आकाश, वायुमंडल में परिवर्तन होने लगते हैं। विज्ञान और अध्यात्म- दर्शन से जुड़े यह पर्व नौ दिन का होने के कारण ही 'नवरात्र' पर्व के नाम से मनाया जाता है।।
सनातन धर्म को सकारात्मक दृष्टिकोण लेकर मानने वाले लोग प्राक्- काल से ही नवरात्र या नवदुर्गा- पर्व को बड़ी श्रद्धा और आस्था के साथ मनाते आये हैं। पुराणों के वर्णन से प्रतीत होती है कि प्राचीन समय में जब आसुरिक शक्ति से अधर्म, पाप, अनाचार, अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब सारे देवों ने मिलकर अपने- अपने तेज से एक ऐसी दिव्य शक्ति का प्राकट्य किया, जिन्हें दुर्गति नाशिनी शक्तिमयी दुर्गा नाम से परिचिति प्रदान किया गया था। फिर इसी ब्राह्मीशक्ति स्वरूपा परमा- शक्ति- स्वरूपिणी दुर्गा ने असुरों का विनाश की थी। इसीलिए यही उर्ज्जशीला शक्ति के नौ विभिन्न रूपों को ही नवरात्र में नव शक्ति या नवदुर्गा नाम मे आरोपित किया गया है।।
इस पौराणिक आख्यान से थोडा हट कर एक अलग पहलू पर विचार करने से स्पष्ट होती है कि इस नवरात्र- तत्व भी वैज्ञानिक और खगोलीय तथ्यों से जुड़े हुए है। नवरात्र का पर्व में नौ कालरात्रियों का समावेश है। अतः नव + रात्रि = नवरात्रि। ये एक विशिष्ट समय व्यंजक। यह वह अवसर होता है, जब ब्रह्माण्ड में असंख्य प्रकाश धाराएँ 'सौर मण्डल' पर झरती हैं। ये प्रकाश धाराएँ एक दूसरे को काटते हुए अनेकानेक त्रिकोण- आकृतियां बनाती हैं और एक के बाद एक अंतरिक्ष में विलीन होती रहती हैं। भिर्ण- भिर्ण वर्ण, गुण, धर्म से परिपूर्ण यह त्रिकोण आकृतियां बड़ी ही रहस्यपूर्ण होती है।।
'हिरण्यगर्भ संहिता' के अनुसार ये प्रकाश धाराएँ 'ब्रह्माण्डीय ऊर्जाएं' होते, जो सौर मण्डल में प्रवेश कर और विभिन्न ग्रहों, नक्षत्रों, तारों की ऊर्जाओं से घर्षण के बाद एक विशिष्ट प्रभा का स्वरुप धारण कर लेती हैं। अध्यात्म- दर्शन के अनुसार-- यह दैवीय ऊर्जाएं 'इदम्' से निकल कर 'ईशम' तक आती हैं और इस 'इदम्' को 'परमतत्व' तथा 'ईशम' को 'इदम' का साकार रूप कहा जाता है। फिर जंहा 'इदम्' है निर्विकार, निर्गुण, निराकार, अनन्त, ब्रह्म स्वरुप, वंहा 'ईशम' है मानुषी कल्पना से उद्भूत परमब्रह्म ईश्वर के सगुण तथा साकार रूप- सम्भार।।
यह ऊर्जाएं 'ईशम' से निकल कर अपने को त्रितत्व, यथा-- अग्नि, आप यानी जल तथा आदित्य में विभक्त कर लेती हैं। 'आदित्य' भी अपने को आकाश, वायु और पृथ्वी तत्वों में विभक्त कर लेता है। इस प्रकार महाभूत की आधार- रूप 'पंचतत्व' है-- अग्नि, जल, वायु, आकाश और पृथ्वी। अब आधुनिक शोधकारीओं के द्वारा स्पष्ट रूप से सिद्ध हो चुका है कि 'तत्व' ही ऊर्जा रूप में बदल जाता है। अतः तत्व ही ऊर्जा है और ऊर्जा ही तत्व है। इन ऊर्जाओं के गुण तथा धर्म अलग- अलग होते हैं। आज का विज्ञान इन्हें ही 'इलेक्ट्रॉन', 'प्रोटॉन' और 'न्यूट्रॉन' के नाम से पुकारता है।।
ज्योतिष के दृष्टि से यह उर्ज्ज़ा ही है ज्ञानशक्ति, बलशक्ति और क्रियाशक्ति। कालांतर में उपासना पद्धति विकसित होने पर उपासना प्रसंग में ये ही हो गयी-- महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली स्वरूपा आदि- ब्राह्मी- शक्ति की प्रतिकात्मिका त्रिगुणा- ऊर्जा स्रोत। इनके वाहक रूप में क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश की कल्पना की गयी। इन्हें ही तंत्र में "पंचमुंडी" आसन कहा गया है। इसीलिए नवरात्र को कालरात्रि और नवदुर्गाओं को 'कालिशक्ति' की प्रतीकात्मिका परिचिति तांत्रिक विधान में है।।