रासोत्सव:
रास का अर्थ है रस का समूह । आनंद जब बाहर छलक जाता है तब उसे रस कहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण सदा आनंद स्वरूप है एवं हम सभी जीवात्माओं की आत्मा है इसीलिए उन्हें परमात्मा कहते हैं, जब श्रीकृष्ण अपने भक्तों के साथ लीला करते हैं तब वह आनंद बाहर छलक कर रस बन जाता है, भक्तों के संग भगवान की लीला में भक्तों को आनंदात्मक प्रभु का स्वरूपानंद एवं भजनानंद प्राप्त होता है, आनंद/हर्ष के कारण किसी भी प्रयोजन से रहित होकर की जाने वाली प्रभु की चेष्टा को ही लीला कहते हैं, हमारा वास्तविक स्वरूप या आत्मा तो भगवन श्रीकृष्ण ही है, जीव तो आनंद की खोज में न जाने कहा कहा भटक रहा है, किंतु जीव को सच्चा आनंद तो भगवान के भजन से ही मिलेगा, हमारे अंदर रही हुई प्रेमी रूपी निधी को प्रभु से अतिरिक्त अन्य विषयों में लगाकर जीवन नष्ट नहीं करना चाहिए किंतु उस प्रेम को भगवान में लगाना है, इसीको भक्ति कहतें हैं ।
इस रास लीला को कई लोग स्वयं की लौकिक आसक्ति के कारण लौकिक भाव की तरह समझते हैं , वे बिचारे क्या जाने की यह तो परमात्मा और जीवात्मा के बीच चल रहा दिव्य आत्मरमण ही है, आत्मरमण का यह अर्थ है की प्रभु अपने स्वरूप के साथ ही खेल रहे हैं, प्रभु की दृष्टि में दूसरा कोई नहीं हैं क्योंकि प्रभु की लीला में सभी कृछ प्रभु ही बने हैं । जब प्रभु का वेणुनाद सुनकर गोपीजन प्रभु के समक्ष पधारे तब उन्होने प्रभु से यही कहा की वे सभी लौकिक-पारलौकिक विषयों को छोडकर प्रभु के पास आते हैं, फिर रासलीला में लौकिकता कैसे रही ?
स्वयं ज्ञानी और भक्त श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित को यह कथा सुनाई है और इसका यह फल बताया है कि मन-बुद्धि-चित-अहंकार के सभी काम-क्रोध आदि रूप दोष इस कथा से नष्ट हो जाते हैं, यदि इस लीला में लौकिकता होती तो ज्ञानी-भक्त श्रीशुकदेवजी परिक्षित राजा को यह कथा क्यों सुनाते ??
श्रीकृष्ण परमात्मा होने के कारण हर जीवात्मा के अंदर बिराज कर रमण कर ही रहे हैं, इस जगत के रूप में भी श्रीकृष्ण का आत्मरमण ही चल रहा है क्योंकि समस्त जगत के सभी नाम-रूप-कर्म के रूप में श्रीकृष्ण ही प्रकट होकर लीला कर रहे हैं ऐसा तत्वदर्शन रूप ब्रह्मवाद शास्त्र हमें समझातें हैं, किंतु इस जगत रूपी प्रभु की लीला में अपने स्वरूप का ही आनंद लेने के लिए इस जगत के रूप में प्रभु ने आनंद छिपा लिया है अर्थात् जगत में प्रभु ने स्वयं को छिपा रखा है, परंतु भगवान श्रीकृष्ण ने जो रास लीला शरद पूर्णिमा के दिन अपने व्रजभक्तों के बीच प्रकट की, वहाॅं तो जितनी गोपिकाएॅं थी उतने ही रूप में भगवान श्रीकृष्ण अनेक रूप में प्रकट हुए और उन्हें अपने स्वरूपानंद एवं भजनानंद का दान दिया, प्रभु की जगत की लीला की तरह यहाॅं स्वयं प्रभु ने अपने आप को छिपाया नहीं था क्योंकि व्रजभक्तों की भक्ति से आप उनके आधीन हो चुके थे, इसी का नाम पुष्टिमार्ग है कि जहाॅ भगवान भी भक्त के आधीन हो जाते हैं ।
रास लीला में तो प्रभु ने कामदेव को भी लज्जित करके भगा दिया हैं क्योंकि प्रभु की इस लीला में लौकिक काम नहीं है, रास लीला में प्रभु ने अपने अलौकिक स्वरूप से कामदेव को भी मोहित कर दिया है, इसी कारण भगवान श्रीकृष्ण को श्रीमदनमोहनजी भी कहते हैं । श्रीमहाप्रभुजी आज्ञा करतें है की रास लीला में केवल बाहर से ही सभी क्रिया श्रृंगार रसात्मकता वाली दिखाती हैं किंतु यहाॅ लौकिक काम बिल्कुल नहीं है ।
श्रीमहाप्रभुजी का नाम है ‘‘ रासलीलैक तात्पर्यः ‘‘ रास लीला में जिनका तात्पर्य है ऐसे श्रीवल्लभ हैं क्योंकि श्रीमहाप्रभुजी साकारब्रह्मवाद द्वारा यही समझाना चाह रहे हैं की एक ही ब्रह्म अपने आनंद स्वभाव के कारण अनेक नाम-रूप-कर्म में प्रकट हुए हैं, ठीक उसी तरह श्रीमहाप्रभुजी की कृपा के कारण ही आज हर वैष्णव के घर में श्रीकृष्ण रास लीला के आनंद का दान देने के लिए प्रकट हुए हैं ।
राधे राधे 🙏जय श्री कृष्ण
प्रतिमा अरोड़ा
दिल्ली