ज्ञानार्जन !!!
आवश्यकता से अधिक हर चीज घातक और नुकसानदेह होती है। “अति सर्वत्र वर्जयेत”, संस्कृत का यह बोध वाक्य न सिर्फ हम सबने कभी न कभी पढ़ा है, बल्कि अपने बड़े-बुजुर्गों से सुना भी है। ये उक्ति व्यक्ति के सम्मान, आदर, बड़ाई करने पर भी लागू होती है। आवश्यकता से अधिक सम्मान, आदर या बड़ाई हमारे भीतर अहंकार पैदा करती है अथवा हमें मूर्ख बनाती है।
बहुत समय से एक बात देखने को मिल रही है। वह यह कि जब कोई सामाजिक कार्यक्रम होता है, उसके लिए जिन आमंत्रित भद्रजनों का नाम आमंत्रण पत्र पर छापा जाता है, उनके मुख्य और उपनाम के बीच में “जी” लगाया जा रहा है। कुछ लोग तो एक कदम आगे बढ़कर मुख्य और उपनाम दोनों के बाद दो बार “जी” लगा देते हैं। यह न सिर्फ “अति” है, बल्कि इसकी गणना “चापलूसी” में होने लगी है। एक भेड़ चाल चल पड़ी है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि यह मूर्खता है।
संदर्भ वश, हम सबको शायद उस “अंधभक्ति” वाले पाठ की याद होगी, जो हमारे प्राइमरी स्कूल की एक पाठ्य पुस्तक में हुआ करता था। उसमें सड़क किनारे एक किलोमीटर का खंभा गड़ा दिखाया गया था और उसमें लिखा था – “भोगांव 8 किमी.” तथा उसके सामने हाथ जोड़कर एक व्यक्ति को बैठा दर्शाया गया था। आज हम जानते हैं कि उस व्यक्ति के माध्यम से उसमें न सिर्फ समाज के एक वर्ग विशेष को मूर्ख साबित करने का अर्थ निहित था, बल्कि उस पाठ को छोटे-छोटे बच्चों के दिमाग में समाज के उस वर्ग विशेष के लिए जहर बोने के उद्देश्य से पाठ्य पुस्तक में शामिल किया गया था।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह की समाज विरोधी प्रवृत्तियां व्यवस्था में भी मौजूद हैं। तात्पर्य यह भी है कि आवश्यकता से अधिक चालाकी – फिर वह समाज के तौर पर हो, व्यवस्था के तौर पर हो, या व्यक्ति के तौर पर हो – मान्य नहीं हो सकती। समय के साथ वह सबकी समझ में आ जाती है।
योग्यता और व्यक्तित्व का सम्मान होना चाहिए, समाज की विभूतियों का आदर होना चाहिए, परंतु इस पवित्र उद्देश्य के माध्यम से किसी को मूर्ख समझने अथवा मूर्ख बनाने की कोशिश न सिर्फ निकृष्टता की श्रेणी में आती है, बल्कि अक्षम्य भी है।
सदैव स्मरण रहे, आवश्यकता से अधिक किसी का सम्मान, आदर या बड़ाई – चापलूसी, चमचागीरी और अंधभक्ति की श्रेणी में आती है।
क्षमस्व – आज का “ज्ञानार्जन” व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित है, इसलिए कुछ कटु है, पर सत्य है!
🙏🌹🙋♂ !! जय श्रीकृष्ण !!🙏